सुशील कुमार भारद्वाज की कहानी ‘धर्म’

“आप क्यों नहीं खाना चाहते हैं?  मैं अच्छा खाना नहीं बनाती , इसलिए?”
सोफिया की ये बात मुझे निरुत्तर कर गई .  मैं सोच में पड़ गया कि आखिर क्या कहूँ उससे?  नहीं खाऊंगा तो पता नहीं क्या -क्या सोचेगी?  और खाऊँ तो कैसे?  उसका दोष ही क्या है?  गलत समय पर तो मैं आया.  आया भी तो हाल- समाचार जानने के बाद उसके दफ्तर में रूकने की जरुरत ही क्या थी ?
उस समय दफ्तर में मात्र तीन ही जन तो थे- सोफिया , तरुण और मैं .  अचानक अखबार झटक सोफिया पिछले टेबुल से लगे कुर्सी पर बैठे तरूण से पूछी – “लंच कीजिएगा ?”
“हाँ , अब करेंगें ही. समय हो ही गया है.” – अखबार को टेबुल पर रखते हुए तरुण ने कहा.
सोफिया अपनी कुर्सी से उठी और बेसिन की ओर सीधे चली गई.  और मैं यंत्रवत अखबार में रिपोर्ट-दर -रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डालते हुए सारी गतिविधियों को देख रहा था . हाथ धोकर जब वह वापस लौटी तो आदेश के लहजे में मुझसे बोली – “आइए खाइए.”
थोड़ी देर के लिए मैं चौंक गया . सोचने लगा कि ये क्या बोल रही है? सोच-समझकर बोल रही है या फिर अनजाने में ही?  फिर व्यवहारिकता का हिस्सा मान चुप्पी लगा गया और मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला – “आप खाइए. “
– “क्यों? आप नहीं खाइएगा ?” – तुरंत वो एक सवाल दाग गई.
फिर असमंजस में फंसा सोचने लगा कि इसका क्या जबाब दूँ? और सच? सच तो खैर कड़वा….. फिर एक बहाना बनाते हुए कहा – “अभी इच्छा नहीं है .”
– “कब खाइएगा ?” – लगा जैसे कि आज वो सबसे ज्यादे मेरे लिए ही चिंतित है. शायद मैं रूठा हुआ हूँ जिसे मनाकर ही वो दम लेगी. कब खाऊंगा – इसका क्या मतलब है?….. एक अजीब-सी झुंझलाहट होने लगी. लेकिन झुंझलाहट और चुप्पी का यहां कोई मतलब नहीं था इसलिए साफ़-साफ़ बोल गया – “थोड़ी देर बाद घर जाकर खा लूँगा.”
– “चुपचाप कुर्सी इधर खींच लीजिए और बेसिन में जाकर हाथ-मुंह धोइए .” –  उसकी आवाज थोड़ी सख्त हो गई.  लगा जैसे कि मेरा जबाब उसे कबूल नहीं.
 उसकी बात को टालते हुए फिर मैं आजिजी में – “ओह! आप खाइए न!”
– “आप क्यों नहीं खाना चाहते हैं ? मैं अच्छा खाना नहीं बनाती , इसलिए ?” – मासूम-सा उसका यह सवाल मेरे कान से टकराया तो मैं निःशब्द हो गया. सोचने लगा कि क्या यही सच है? एक अजीब हंसी चेहरे पर तर गई.
शायद यह उसके तुणीर के घातक तीरों में से एक था .  मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा था . सोचने लगा मैं उसका नाश्ता खाऊँ तो कैसे ?  उसे थोड़ी देर पहले तक तो मालूम भी न था कि मैं उससे मिलने आ रहा हूँ .  घर से चलते वक्त की बात कौन कहे, जो मेरे लिए फालतू नाश्ता रखती ?  व्यावहारिकता के नाते पूछना उसका धर्म है .  उसमें भी तब जब उसे ज्ञात हो कि मैं उसे किस नज़र से देखता हूँ ?  पर मेरा धर्म क्या कहता है ?
अधिक जिद्द करने पर भी न खाया तो पता नहीं क्या-क्या सोचेगी ? – नाटक कर रहा हूँ?  स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा हूँ ? और पता नहीं क्या-क्या सही -गलत विचार उसके दिमाग में घर कर जाएगा . पर मैं क्या करूँ ?  उसके हाथ के बने नास्ते को खाऊँ?  एक वैसे हिंदू परिवार से हूँ जहाँ छुआछूत को बहुत अधिक तवज्जो दिया जाता है .
बचपन के उस दिन को कैसे भूल जाऊँ? – जिस दिन सलीम के देह में सटने के कारण मुँह में लिया हुआ उतना स्वादिष्ट झाल-मुढ़ी उगलना पड़ा था.  सुल्तान मियाँ के हाथ छुए हुए लोटे में दादी फिर कभी पानी नहीं पी.  अक्सर खैनी खाने वाले दादा जी चीनी मिल या यात्रा के दरम्यान सप्ताहों इसे छूते तक नहीं थे कि मालूम नहीं किससे सफेदी (चूना) मांगने की नौबत आ जाए. परदादा ने दादा जी को ज्वाइनिंग के दो ही दिन बाद  असम के सेना कैम्प से वापस ले आए थे सिर्फ इसलिए कि पता नहीं किस –किस के  हाथ का छुआ और क्या-क्या खाना खाएगा?  हद तो ये कि मुस्लिम के होटल में मांस खाने के कारण चाचा आज वर्षों बीतने के बाबजूद भी अपराधबोध में, घर वापस आने की हिम्मत नहीं जुटा पाएँ  हैं. फिर मैं ऐसी हिमाकत कैसे करूँ?…..  हाँ पिताजी समय के साथ थोडा बदले जरूर हैं .  वे मौलबी के दुकान से अंडा या कोई भी सामान खरीदने से परहेज नहीं करते हैं .  पर आज तक वे भी कभी किसी मुस्लिम के हाथों बने भोजन या पानी को हाथ नहीं लगाए है. फिर मैं कैसे…..
– “क्या सोच रहें हैं ? हाथ धोइए न! ” – अचानक सोफिया की आवाज कान से टकराई तो सोचने का क्रम टूटा. और अतीत से वर्तमान में लौट फिर कहीं द्वंद्व में घिर गया.
भूख तो वाकई में जोरों की लगी है .  रात का खाया हुआ अब दोपहर का एक बज चुका है. व्यस्तता की वजह से  सुबह से कुछ खाने का मौका ही नहीं मिला और बाहर में चिलचिलाती हुई गर्मी इतनी तेज है कि घर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा  हूं. इधर तरुण भी अब अपना नाश्ता निकाल चुका था.  अब ऐसी स्थिति में मेरा वहां से उठकर निकल जाना भी गलत था. क्या ऐसा करना उनलोगों का अपमान नहीं होगा ?  व्यावहारिक कदम तो बिल्कुल ही इसे नहीं माना जाएगा . पर धर्म का क्या करूँ?
दिमाग के अंदर घमासान जारी था. तर्क अपनी सुविधा-असुविधा में कहीं उलझा था. धर्म आखिर है क्या ?  सबका अपना – अपना धर्म है.  सोफिया का धर्म – अतिथि -सत्कार का धर्म .  मेरा धर्म – जोरों की भूख लगी है – भूख मिटाने और प्राण रक्षा का धर्म .  यदि इस लालच को छोड़ भी दूँ तो मित्रता का धर्म. और उसमें भी पहली बार किसी लड़की से इतना प्रभावित हुआ – जिसके साथ गुजरे एक -एक पल को यादगार बनाने और उन पलों को सहेजने की तमन्ना दिल में है . और अभी एक मौका भी है तो अब ऐसे पलों में जब वो अपनत्व के भाव से खाने को कह रही है तो मैं धर्म के बारें में सोचने लगा ? कितना सही है और क्या सही है?
लगा जैसे कि मुझसे तो अच्छी शायद यही है  जो जाति-धर्म से ऊपर उठकर मानवता और व्यवहारिकता का परिचय दे रही है.  पिछली बार भी कह रही थी – “थोड़ी देर पहले आते तो हमलोग साथ में ही खाते!”  सुनकर सिर्फ मुस्कुराया था .  आश्चर्य भी हो रहा था कि क्या बोल रही है ?  दिमाग में सिर्फ एक ही बात गूंजी – “आखिर वो सोच क्या रही है ?  मैं तो यूँ ही कभी – कभी मिल जुल लेता हूँ .  कभी कोई काम पड़ गया तो बातें और मुलाकातें हो जाती हैं . कहीं वह भावनात्मक रूप से अधिक लगाव तो नहीं महसूस कर रही है?
हाँ, एक दिन ये भी पूछ रही थी कि मैं मांस -मछली खाता हूँ कि नहीं ?  मैं तो उसे  सामान्य बात समझ रहा था. लेकिन मामला शायद…. तो क्या वह कहीं भविष्य के सपने बुनने लगी है? सामंजस्य के तारों को टटोल रही है? जीवन की लंबी यात्रा में साथी की तलाश कर रही है? कुछ भी तो अचानक नहीं होता? खाने-पीने से लेकर रहन-सहन सब पर तो उसकी पैनी निगाह है. कहीं कोई सपना तो साकार नहीं हो रहा है? “
लेकिन समय के साथ मैं उन बातों को व्यावहारिकता का हिस्सा मान भूल गया था. और सच तो ये है कि आज तक अपने परिवार से अलग किसी लड़की के साथ अलग -अलग प्लेट में तो खाया ही नहीं .  फिर मैं इसके साथ खाने की बात कैसे सोच सकता हूँ ?
फिर क्योंकर तो मैं कुर्सी से उठकर सीधे बेसिन की तरफ हाथ धोने चला गया . सोचने लगा चलो कोई बात नहीं. यह संकट भी दूर हो जाएगा. तरुण के साथ बैठ जाऊंगा  खाने के लिए.  वो भी उसके सामने मेरे साथ खाने की जिद्द थोड़े ही न करेगी?  वो भी खुश रहेगी और फिर उसे कभी कुछ कहने का मौका भी नहीं मिल पाएगा.  वर्ना पता नहीं …….
हाथ धोकर वापस आया तो अंदर तक हिल गया .  तरुण चुपचाप खाने में मशगूल था . जबकि सोफिया टेबुल पर नाश्ता एक ही प्लेट में सजा चुकी थी. और वो मेरी कुर्सी अपने सामने खींच कर मेरी ओर देख रही थी .  सधे हुए क़दमों में मैं भी जाकर उसके सामने कुर्सी पर बैठ गया .
कुछ सोच पाता उसके पहले ही उसकी खिलखिलाती हुई आवाज सुनाई पड़ी – “अब खाइएगा भी कि मुँह में खिलाना पड़ेगा ? …… मैं उसके लिए भी तैयार हूँ.”
मैं शर्म से  निरुत्तर हो गया .  सिर्फ उसकी आँखों में देखता रह गया  कि क्या कहना चाह रही है? जब उसका हाथ मेरे मुँह की तरफ बढने लगा तो संभला और  उसके हाथ से खाना का वह टुकड़ा लेकर स्वयं खाने लगा . उसके चेहरे पर एक अजीब -सी खुशी थी और फिर मैं सिर्फ खाता ही रहा  एक भूखे की तरह.  भूल गया सारी बातों को . पीछे  छूट गए सारे धर्म  और दुनियादारी.  याद रहा तो सिर्फ प्रेम धर्म .  दोस्ती का धर्म .  सद्भाव का धर्म . मानवता का धर्म.  खुशी थी .  संतुष्टि थी .  एक यादगार पल गुजर रहा था .  उस सोफिया के साथ खा रहा था जिसके लिए दिल में सम्मान और प्यार है .  जिसके साथ गुजरे हर पल को यादगार बनाना चाहता था. धर्म क्या होता है? इंसानियत से बढ़कर भी कोई बड़ा धर्म होता है क्या? प्यार से बढकर भी कोई धर्म होता है?
★★★
सुशील कुमार भारद्वाज युवा कहानीकार हैं. हाल ही उनका नया कहानी संग्रह ‘जनेऊ‘ प्रकाशित हुआ है और काफी चर्चा में हैं. कहानीकार ने संग्रह में यह स्थापित किया है कि कहानियां सामंती जीवन के मार्मिक चित्रण से सम्बंधित हैं. सुशील पटना में रहते हैं जहाँ युवा कहानीकारों की भारी कमी है. ऐसे में सुशील एक ज़रूरी जगह भरते हैं. वे कहानियों को बहुत समय देते हैं और बार बार उनमें सुधार करते रहते हैं. हम आशा करते हैं कि आने वाले समय में उनकी वैचारिकी और विस्तृत होगी.

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