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नैतिक

लोग कब मरते हैं? “People die when they become irrelevant to the world or when the world becomes irrelevant to them.” बंगाली में बोले गए इरफ़ान के डायलॉग का ये तर्जुमा मुझे दोस्तोएवस्की के अंडरग्राउंड मैन के कहे कि याद दिलाता है, “To live longer than forty years is bad manners…Who does live beyond forty?… fools and worthless fellows.” हालाँकि ये दो बातें अलग-अलग प्रसंगों और कालखण्डों में कही गईं हैं, पर दोनों के मूल में इंसानी जीवन का वही सत्य-प्रबोधन है जो सभ्यता के खोखलेपन और वजूद के टुच्चेपन को रेखांकित करता है। दोस्तोएवस्की ने चेतना को रोग बताया है।

“To be too conscious is an illness.”

2017 में बांग्लादेश में रिलीज़ हुई, Indo-Bangladeshi ड्रामा Doob : No Bed of Roses का मुख्य किरदार जावेद भी एक दिन इसी चेतना से बुद्ध हो बैठता है। जावेद बांग्लादेश का एक प्रसिद्ध फ़िल्मकार है, वह बोलने और बहस करने से ज़्यादा, महसूस करता है। फ़िल्म में शब्द कम हैं, किरदार ख़ामोशी में बात कर रहे हैं। छुट्टियों के दौरान उसकी पत्नी माया पूछती है:
“तुम हमेशा पास्ट में क्यों रहते हो। ऐसे बात करते हो जैसे हमारा कोई वर्तमान ही नहीं है”

ये सुनकर हल्के भावों वाला जावेद धीरे धीरे सिसकियाँ लेते हुए रो पड़ता है। जावेद का जीवन एक राष्ट्रीय स्तर के विवाद की शक्ल तब लेता है जब उसकी बेटी साबेरी की सहेली नीतू मीडिया में जावेद से अपने रिश्ते को बढ़ा चढाकर बताती है। फ़िल्म का शुरुआती शॉट दोनों लड़कियों के बचपन में जाता है, जहाँ नीतू साबेरी से पूछ रही है “तुम्हारे पिता अपनी फ़िल्मों में सिर्फ़ तुम्हें क्यों कास्ट करते हैं?” जिसके जवाब में साबेरी कहती है, “अब से मैं उन्हें तुम्हे भी कास्ट करने कहूँगी”। नीतू ज़रा चिढ़कर कहती है “उसकी ज़रूरत नहीं , मैं अपने पिता से कहूँगी कि वो किसी को रखें जो मेरे लिए फ़िल्म बनाये”। इस शॉट का महत्व आप फ़िल्म के लगभग अंतिम दृश्य तक कुछ कुछ समझ पाते हैं। हालांकि यहाँ किरदारों की मानसिक जटिलताओं पर प्रकाश डाला गया है, फ़िल्म अंत तक किसी किरदार पर कोई जजमेंट नहीं देती। और अपने मूल अर्थ के लिए ज़्यादातर abstraction पर ही निर्भर रहती है।

कहानी के समयचक्र में कई छलाँगें हैं। नीतू जावेद की नई पत्नी हो जाती है। और साबेरी की समझ में उसकी एक ईर्ष्यालु सखी ने उससे उसका बाप छीन लिया। खुशियाँ देर तक क्यों नहीं रहतीं? कुछ मिलने पर भी कुछ की ख़्वाहिश क्यों कचोटती है? ये अधूरापन कब ख़त्म होगा ? एक रूढ़िवादी समाज में प्रेम अपने प्रारूप क्यों नहीं बदल सकता? खुशियों को बहुत संघर्ष क्यों करना पड़ता है? प्रेम करना गुनाह है? ग़लत है? और प्रेम पर, आज़ाद फैसलों पर पाबन्दियाँ लगाना?

फ़िल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि ये किसी नैतिक तराज़ू पर किरदारों को नहीं जाँचती। यहाँ किरदार सेटिंग से बड़ा हो जाता है। कई संभावनाओं के साथ इसे यूँ ही छोड़ दिया गया है। कैमरे का काम सबसे शानदार है। आप किरदारों के बीच की दूरी और अकेलेपन को प्रत्येक फ़्रेम के ज़रिए जीवंत रूप में महसूस करते हैं। फ़िल्म के केंद्र में दो अलग अलग घर हैं, पर किसी भी घर को कैमरे पर पूरा नहीं दिखाया जाता। हर किरदार घर के अलग हिस्सों या कोनों में ही दिखता है। ये उसी अधूरेपन का सूचक है। यही उसका स्पेस है, यही उसकी सीमा है। इंसान की घुटन का प्रत्यक्षीकरण है। कमज़ोर पहलू ये है कि फ़िल्म बांग्लादेश के रूढ़िवादी समाज पर मंथन की कोशिश तो उठाती है, मग़र नेरटिव इतना पर्सनल हो जाता है कि उसके लिए ज़्यादा गुंज़ाइश नहीं बचती । आख्यान सीधी रेखा में ना हो कर बिखरे स्वरूप में है, तो मूल ढाँचा समझने में बहुत वक़्त लग जाता है। कुछ दृश्य प्रभावशाली होते-होते बस रह गए। कहीं कहीं एडिटिंग कच्ची है। जो सबसे अहम मैसेज है वो है मौत को लेकर। कहानी में मौत किसी सदमे या शॉक की तरह नहीं आती, बल्कि एक रोज़मर्रे की क्रिया जैसी दिखती है। जिससे असर तो पड़ता है, दुःख तो है, मग़र उसकी अभिव्यक्ति की कोई विशेष ज़रूरत नहीं।

“That God allows people to die, when they lose communication with their loved ones.”

असल मौत तभी हो जाती है, जब अपने प्रियतम व्यक्तियों से बात, सम्पर्क टूट जाये। जावेद को सामाजिक और कुछ निजी खोखलापन, दोनों मिलकर मारते हैं। उसके मौत की असल में कोई वजह नहीं है। वजह है वही भद्दा अस्तित्ववादी मज़ाक जिसे फ्रेंच कवि बॅदलेयर ने ennui कहा था। यही विरक्ति, यही उबाई। कमोबेश इसी प्रसंग में दोस्तोवस्की ने चेतना को रोग बताया था, “… a real, thoroughgoing illness.”; इस बयान के केंद्र में आधुनिक शहरी जीवन ही था। ये चेतना आपकी भेंट आपके अस्तित्व के बौनेपन से करवाती है, आपके सारे सांसारिक भ्रमों को बड़ी बुरी तरह तोड़ती है । Underground Man की बेचैनी, अशांति और दुख की वजह यही चेतना है जिससे वह दूर रहने की सलाह देता है । आप हर सुबह उठते हैं एक नए सूर्य की ताक में, पर ख़ुद को जड़ित पाते हैं उसी बीती रात के अंधकार तले जिसने मानव-अस्तित्व को ज़ोर से जकड़ रखा है । आप भीड़ से अलग हो जाते हैं क्योंकि आपने “आदर्श” देखा है। अब सामने है बस लज्जा, बेबसी और आपके होने का अवसाद। परिणामवश आप अलग, अकेले हो जाते हैं, और अंततः मृत भी, साँसों के आने-जाने के बावजूद।

फ़िल्म इरफ़ान के कुछ अंतिम स्क्रीन प्रदर्शनों में से एक है। उनकी आँखों में डूब जाने के लिए फ़िल्म ज़रूर देखी जा सकती है। फ़िल्म 2021 में netflix पर रिलीज़ हुई थी।

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नैतिक साहित्य के विद्यार्थी हैं और अंग्रेज़ी-हिंदी दोनों भाषाओं में काम करते हैं। उनके पूर्व-प्रकाशित काम और उनसे संपर्क के लिए यहाँ देखें : व्यक्ति नहीं व्यवस्था का दस्तावेज़

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