कहानी ::
जस्ट डांस : कैलाश वानखेड़े

मुख्यतः स्वानुभूत और सहानुभूत के अंतर अथवा विपर्यय एवं अम्बेडकरवादी विचारधारा का आधार लेकर दलित साहित्य की तमाम धाराओं, विधाओं और लेखनी को सामान्य या कि कथित मुख्यधारा के साहित्य से अलगाया जाता है. पारम्परिक पाठकों को अस्मितावाद अथवा अम्बेडकरवाद अथवा दलितवाद की ख़ुराक उतनी ही पसंद है जिसमें उनकी अपनी चुटिया न खुलती हो, उनका खुद का गुप्त-प्रकट तिलक-छापा प्रश्नबिद्ध न होता हो! कहानी यह भी असहज नहीं करेगी.
इन्द्रधनुष के पाठकों को कैलाश वानखेड़े और उनकी कहानी ‘जस्ट डांस’ से रूबरू कराते हुए बताना है कि हिंदी दलित कहानीकारों की पहली पीढ़ी में ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, प्रह्लाद चंद्र दास, विपिन बिहारी, रत्न कुमार साम्भरिया, बुद्धशरण हंस प्रमुख हैं जबकि दूसरी/वर्तमान पीढ़ी खड़ी जो हुई है उसमें अजय नावरिया, टेकचंद, सुशीला टाकभौरे (उम्र के मामले में नहीं), कैलाश वानखेड़े शामिल हैं. दोनों पीढ़ियों को मिलाकर देखें तो मुख्यधारा की पारंपरिक हिंदी कहानी कला में बिलकुल समा बैठता शिल्प इनमें से भी गिनचुने में ही है. कैलाश वानखेड़े इस ब्याज से सिरमौर हैं.
कहानी हमारे आधुनिक समाज के ‘जस्ट’ होने (न्यायप्रियता) की खण्डित स्थितियों, परिस्थितियों, भयावहताओं की एक झलक प्रदान करने के साथ ही जाति के सवाल व कई समसामयिक संदर्भों-समस्याओं, घटनाओं, सरकारी योजनाओं-परियोजनाओं एवं सरकारी कारिंदों-अमलों की नादानियों, बदमाशियों, घुड़पेंचों आदि को लाजवाब तरीके से एड्रेस करती चलती है. — मुसाफ़िर बैठा

कैलाश वानखेड़े

|| जस्‍ट डांस ||

      उसने कहा था, मैंने सुना था.वो चली गई थी.उसके जाने का वक्‍त अभी भी धड़क रहा है. न जाने ऐसा क्यों लग रहा है कि वह लौटेगी सधे कदम से, खुद को संभालती हुई. मुस्‍कुराहट को दबाती हुई धीमे से अपने पैंरो को देखते हुए आंख और चेहरे को नीचे कर कुर्सी पर बैठने के बाद कहेगीं.
   वह ऐसा ही करती है वो ऐसा ही करेगीं अभी. अभी लगातार दरवाजे की तरफ देख रहा हूं. लग रहा है वो बैठकर अपने बालों को ठीक करने के अंदाज के साथ बोलेगी, ”बात यह है कि…
      बात यह है कि वो जा चुकी है. जब जा रही थी तब लगा था उससे रूकने का आग्रह करूं. तब अजीब सी लड़खडाहट आ गई थी आवाज में. बोल नहीं पाया था. बस इतना कहा था मैंने, ”ठीक है.’’ कह नहीं पाया था अपना खयाल रखना. कोई बात हो तो बताना. तब लगा था कि ठीक है, सुनने के बाद वो कुछ कहेगी लेकिन उसने कुछ नहीं कहा. क्‍या कहेगी? क्‍या सुनना था मुझे? नहीं मालूम. पंखे को देखने लगा जो घूम रहा है. दरवाजे को देखा जो बन्‍द है.
      वो अब निकल चुकी होगी. बस स्‍टैण्‍ड से बस राईट टाईम पर निकल जाती है. नहीं रूकेगीं बस. बस को अगला शहर, समय पर पकड़ना है. लग रहा है बस खराब हो गई होगी. खराब बस जा नहीं सकती है. बस स्टैंड पर इतनी देर रुकने की बजाय वो लौट आएगी. कमरे का दरवाजा खुलेगा और आकर  कुर्सी पर बैठेगी.ख़याल इन्तजार के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हुए अटक गये.
      उस वक्‍त कमरा तप रहा था. पंखे की बस से  बाहर था  तापमान को एक जैसा रखना. मुश्किल और बैचेनी में तमाम पूर्वानुमान के बावजूद बरसात इस जगह नहीं हुई है.सूरज  तेज धूप के साथ पूरी मुस्‍तैदी से अपनी डयूटी निभा रहा था. खेत में अंकुरित बीज झुलसते हुए खुद को बचा रहे है.धरती से गीलापन छोड़कर नमी जा चुकी है.
      चार दिन चार सूरज चार चांद और हजारों हजार चांदनियों के बावजूद करोड़ रूपधारी अंधेरे के बीच कैसे रह पाऊंगा अकेला. अखबार में दूसरी आजादी, अन्ना की खबर पसरी हुई है.इस पेपर  से  पंखा करने का मन होता है लेकिन उसी वक्‍त बिना किसी को कुछ कहे उठता हूँ.  निकल आया हूँ  बाहर.
      इधर उधर भटक कर जब थक गया तब घ्रर आया रात में. टीवी के इस रियलिटी शो में विदेशों में जाकर ऑडियंश लिया गया.  सुभाष जिसके पुरखे बंगाल छोड़कर विदेश चले गए. जज बनी सराह खान ने पूछा, ”तुम किसी से प्‍यार करते हो?” सुभाष ने बिना सोचे, बिना वक्‍त गवाये कह दिया, ‘हां.’’ इस धधकते सवाल का जवाब इतनी जल्‍दी कैसे दे सकता है कोई? प्‍यार शब्‍द ध्‍वनि अभी कान के गलियारे में ही पहुंची होगी और सुभाष की जबान ने झट से हां कह दिया. इस हां को सुनकर आश्‍चर्य में पड़ गई सराह खान. वो जज जिसने अंतरजातीय, अंतरधर्मीय विवाह किया था उसे यकीन ही नहीं हुआ कि कोई इतनी जल्‍दी सबके सामने प्‍यार को मंजूर करेगा. मैं प्‍यार करता हूँ, सरेआम कहना गुनाह माना गया. अपराध. सामाजिक अपराध जबकि चोरी छिपे प्‍यार करना और उस अहसास को सीने से लगाये रखने के दौर में, देश में देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ. सुभाष जो मंच पर है, लंदन के हॉल में है. सबके सामने बेधड़क निर्भिक होकर कहता है, ”हॉ, मैं प्‍यार करता हूँ”,
      मैं अकेले में, एक कमरे के भीतर बोल नहीं पाया और वो चली गई. हॉ, शब्‍द फैसले से उबर नहीं पाई सराह खान कि अपने को समझाने के लिए सवाल करती है, ”किससे?” सराह खान उलझी हुई दिखती है जबकि मैं खुद से बोल चूका था,”किससे प्‍यार करते हो सुभाष?”
      तुम मुझे प्‍यार दो मैं तुम्‍हें प्‍यार दूंगा, का नारा देश विदेश में छा जाएगा. सुभाष ने रेडियो की जगह टीवी पर सबके सामने कह दिया. उस हॉ में चमक थी. रोशनी थी. दंग से भरा, संगीत में डूबा था पूरा माहौल टीवी में और मेरे घर के भीतर टीवी की रोशनी के अलावा कुछ नहीं था. बल्‍ब नहीं जल रहा था. भीतर कुछ जल रहा था. कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ. सराह खान वो जज है कि वो उलझन में है. अब  कौन सा सवाल करे, सुभाष से? सुभाष की आंखे, चेहरा और जबान के साथ कदम तैयार थे. जो चाहे पूछो, जो चाहे करने को कहो, वह तैयार है पूरी तैयारी के साथ मंच पर लेकिन सराह खान के साथ वैभवी जो दूसरी जज है, वो भी हतप्रभ थी. सराह बोली, फिर?”
      सुभाष बोला, ‘’उसके मां-बाप पंजाबी है. वे नहीं चाहते है कि उनकी बेटी की शादी डांसर से हो. वे चाहते है इंजीनियर या डेंटिस्‍ट दामाद. जिसकी कमाई  पचास हजार डॉलर हर महीने हो. वो प्रेमी की बजाय इंजीनियर या डेंटिस्‍ट से शादी करवाना चाहते है. कमाई से शादी करवाने वाले मां-बाप की बात सुनकर, मेरे भीतर कुछ टूटा.तभी खड़ा हो गया मैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इस सुभाष को आजादी मिलेगी या नहीं. उस लंदन में जहाँ रहता है सुभाष, जहाँ रहती है लड़की, वहाँ बेबस दिख रहा है. निराशा की तरफ जाती हुई खाई के मुहाने पर खड़ा है. उसको उस जगह पर देखता हुआ, खुद को अकेला महसूस करने लगा. तभी तो जब कुछ सूझा नहीं सराह खान को तो बोली, ”हमारे देश में तो हालात बदले है, इस तरह की बातें नहीं की जाती है, यहाँ….यहाँ विदेश में? ताज्‍जुब है.” अपनी अस्थिरता को छिपाने के लिए सराह खान ने अपने बालों में दोनों हाथों की उंगलियां डाली. इस बहाने कुछ सुलझ जाए लेकिन उलझ गया था मैं, हैरान था कि हमारे देश में, बोलते हुए सराह खान किस जगह की बात कर रही है? बतौर नागरिक भले ही इस देश की हो लेकिन वो बॉलीवुड की है, जो सच नहीं दिखाता है, वो सपने बेचता है, सपने को ही हकिकत मानता है. उसमें प्रेम सुहावना लगता है, आसान लगता है, कितना मुश्किल है प्रेम, मुझसे पूछो, मेरी बात सुनो.
      कोई नहीं है सुनने वाला. अकेला हूँ और खाना पकाना है. उसे हमेशा भूल जाता हूँ याद नहीं रहता. याद करना नहीं चाहता कि खाना पकाऊँ. याद रहता है कि उसे कहूँगा. याद रहता है उसका चेहरा, उसकी बात, उसकी हंसी, आइनें में उसकी ही तस्‍वीर दिखती है. तभी ख्‍याल आता है कि सुभाष को एक सैल्‍यूट दू. नजर टीवी पर गई तो सुभाष नहीं दिखा. अंधेरा फक्‍क से हो गया. बिजली चली गई. कभी भी जाती है. कभी भी आती है. उसके होने न होने से कोई विशेष असर नहीं पड़ता मुझे. अब आंख बन्‍द कर वहीं लेट गया हु. जमीन पर, सोचता रहा और ठंडी जमीन सुकून देती रही.उसका चेहरा आंखों के भीतर नाचता रहा.
      सभी चैनलों पर नाचना गाना हो रहा है, जिसे रियलिटी शो कहा जा रहा है. इसे  नाचना गाना नहीं कहते. एक हल्‍कापन लगता है सुनने में. नृत्‍य कहते ही आभिजात्‍यपन आ जाता है पर नहीं कहा जा रहा है नृत्‍य. नृत्‍य लिखते है लेकिन शो का नाम नहीं है. नृत्‍य के नाम जो सिखाया या किया जाता है, उससे दूर हैं लोग, नृत्‍य शुद्धतावादी के कमरो में, हॉल में है वह यहाँ-वहाँ नहीं दिखता, दिखता है डांस, जिसे चाहे वो कर सकता है, मैं भी डांस करना चाहता हूँ. उठता हूँ कि बिजली आ जाती है, टीवी चालू करता हूँ,
      सिगड़ी का प्‍लग लगाता हूँ, टीवी बन्‍द हो जाता है. बल्‍ब की रोशनी एकदम कम हो जाती है. खाना पकाने की सिगड़ी के तारों का गर्म होना टीवी को स्‍वीकार नहीं है.अपने घर में अपने हाथ से खाना पकाना टीवी को, बल्‍ब को मंजूर नहीं है. सिगड़ी जलेगी तो हम बंद हो जाएंगें, एक धमकी है, डांस देखूँ या खाना पकाऊँ?
      आटा गूंथता हूँ. उसके ख्‍याल में होता हूँ. सिगड़ी पर खुद को पाता हूँ और गूंथते आटे में उसको. लगता है कि वो टीवी देखते हुए बैठी हुई है और मैं आटा गूंथ रहा हूँ. पानी के हल्‍के से छिंटे जैसे ही आटे पर डालता हूँ लगता है उसके चेहरे पर छिंटे मारे है. वो मुस्‍कुराती है उठती है और एक गिलास पानी डालने के लिए बढ़ती है कि उसका हाथ पकड़ लेता हूँ. छलकता है गिलास में से रह-रहकर पानी कि हमारी इस पकड़-जकड़ में बरसती है भीतर बाहर कोई कल-कल करती नदी. भिंगोती है कि डूबाती है कि हम बहते चले जाते है. पता नही कहां जाना है. बस बहते रहना है. आटा गूंथते हुए बहता जा रहा हूँ कि अचानक लगता है गर्माहट हो रही है. सिगड़ी की आग अपने चरम पर है.उसकी आग में अपने चहेरे का ताप है. लगता है कि सिगड़ी बन गया हूँ.
      तवा रखता हूँ, सिगड़ी पर. रोटी बेलता हूँ कि बल्‍ब का वॉल्‍टेज बढ़ जाता है कि अब टीवी भी चलाई जा सकती है. नहीं करना ऑन. सिगड़ी बना हुआ हूँ कि नदी बनना चाहता हूँ कि कहना चाहता हूँ.
      टीवी चलाया. समाचार चैनल लगाया. डेढ़ सौ साल से बन्‍द पद्मानाथन मंदिर के तहखाने को खोलने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था. सात में से पांच तहखाने खुले है. माना जा रहा है कि डेढ़ लाख करोड़ की संपति है. हिरा-मोती, सोने-चांदी के जेवरात, सिक्‍के, प्रतीक चिन्‍ह मिल रहे है कि इतनी राशि का मतलब है केरल का तीन साल का बजट, मनरेगा की तीन साल की राशि है. दुनिया का सबसे महंगा मंदिर. इस मंदिर ने तिरूपति मंदिर को शिखर से हटा दिया, जिस मंदिर में सदी का महानायक अपने बेटे के वैवाहिक जीवन के लिए मन्‍नत मांगता है. डरा हुआ महानायक पैदल चलता है. टीवी वालों को बुलाता है. दिखता है टीवी पर कि वह दिखना चाहता है टीवी पर, समाचार पत्रों में कि होने वाली बहू के कुंडली के मांगलिक दोष निवारण के लिए भागता है कि बेटे की सगाई अब न टूट जाए कि जिससे इश्‍क किया था, वो तो नहीं मिली लेकिन जिसने इश्‍क किया था सल्‍लू से विवेक से वो अरेंज होने के बाद बनी रहे.
      इस डरे हुए डराये हुए समाज में प्रेम डर का नाम बन गया कि समाचार के बजाय जस्‍ट डांस देख लूं कि महानायक के डांस में संगीत नहीं है. लय नहीं है, सुर नही है, न गायन है कि रोमानिया की लड़की पिया बसंती रे काहे सताये आजा, पर डांस करने के बाद गाने का अर्थ बताते हुए आंसूओं में डूब जाती है कि उसका मंगेतर बाहर खड़ा डबडबाई आंखों से स्‍क्रीन पर देखता है. वैभवी भावुक हो गई है, सबने देखा उसके आंसू, डबडबाई आंखे, भावुकता को. मेरी आंखे नम है, इंतजार में बैठा हुआ हूँ कि गुन-गुनाना चाहता हूँ, काहे सताए आजा….पिया बसंती रे….
      दरवाजे के खटखटाने की आवाज आई. सांकल को लगातार दरवाजे के पटिये पर बजाया जा रहा है कि सताने के इस दूसरे तरीके पर उठता हूँ. इस ख्‍याल के साथ कि वो आ गई है, उसने ही दरवाजा खटखटाया है, दरवाजा खोलते ही फटाक से वो अन्‍दर आ जाता है.
      ”क्‍या कर रहा था बे? कबसे बजा रहा हूँ.” ख्‍यालों की छत भर-भराकर टूटती है कि उस मलबे में दब जाता हूँ. हवा नहीं है. रोशनी नहीं है, फिर भी उसकी याद में ही हूँ कि वो कैसे आ सकती है? इतनी रात में वो अकेली कैसे आ सकती है? वह आना चाहती है कि डरती है. देख न ले कोई उसे, मेरे घर के भीतर जाते हुए. अंधेरी रात में एक लड़की किसी के घर में चली गई, यह एक आंख से, एक जबान से निकलकर इस कस्‍बे की आवाज लाउड स्‍पीकर में बदल जायेगी और जगह-जगह खड़े एंकर पूछेगें, ”सारा देश जानना चाह रहा है कि आप किसलिए गई थीं? सारा देश देख रहा है, बताईये क्‍या किया अन्‍दर? सारे देश की नजर आप पर है, क्‍यों डर रहीं है आप, क्‍या किया ऐसा जो इतना डर रहीं है? सारा देश जानना चाह रहा है, बताइये..बताइये…
      और देश को बताना नहीं चाहती है वो. वो इश्‍क में है, प्रेम में है. प्रेम में जो होता है, इश्‍क में जो डूबी रहती है, उसे किस निगाह से देखते हो कि पीठ पर धौल जमाते हुए प्रेमशंकर कहता है, क्‍या कर रहा था बे, किसी के साथ या अकेले-अकेले..” वो हंसता है. वो जोर से चिखते हुए हंसना चाहता है कि जानना चाहता है क्‍या कर रहा था मैं.
      ”चुपकर जस्‍ट डांस देख, जस्‍ट.” मैं कहता हूँ कि अभी भी दिमाग में वही छाई हुई है,
      ”फिल्‍म देखनी है. बोर हो रहा था.” वो टीवी के रिमोट को ढूंढ रहा है.
      ”फिल्‍म नहीं जस्‍ट डांस देख. देख कि विदेश में भी अपने देश वाला पैसे वाले को दामाद बनाना चाहता है.”
      ”वो तो सब जगे है, गरीब की जोरू कौन बनना चाहती है? कौन बनेगी तेरी जोरू?” हंसता है प्रेमशंकर. इस तरह कि मेरे चेहरे पर चिपकी हुई रोशनी को हटाने के लिए फूंक मार रहा हो.
      ”प्‍यारे बता तू गरीब है या नही.”
      ‘’तू ही बोल.’’ अभी उसके खयालों में हूँ कि सब्जी पकाने के लिए दाल ढूंढ रहा हु.
      ‘’तेरे पास पंखा है.मतलब तू गरीब नही है.’’ उसने फैसला दे दिया.मैंने कहा,ये तो चाइना मेड है.सस्ता है.’’
       ‘’जब देखा जाता है सरकारी नजर से तब सस्‍ता महंगा नही देखते. पंखा है न और फिर तेरे पास पक्‍की दीवार वाला  घर है मतलब गरीब नही है.”
      ”अरे ये कौन सी बात है ये तो किराये का मकान है”
       ‘’हां मतलब तो आवासहीन नही है. खुले में नहीं सोता मतलब गरीब नही है रे तू.” भावुकता वाले अदांज में उसने कहा.
        ‘’अरे छत तो होनी चाहिये सिर छिपाने के लिये.”
     ‘’टीवी…ये सबसे किमती सामान है. अब तू कुछ भी कर ले, तू गरीब हो ही नही सकता. चल जस्‍ट डांस करते है.’’ वो हंसते हुये अपनी कमर हिलाने लगा.
     ”ये तो ईएमआई पे है, वो भी दिल्‍ली मेड.” विवशता में तब्‍दील होता जा रहा हूँ मैं कि प्रेमशंकर बोलता है, ”तू गरीबी रेखा के नीचे नही आ सकता है. तू तो गरीबी के ऊपर है. ऊपर चढ़ा हुआ.” हंसता है कामुकता से भरी हुई हंसी में डूबा हुआ है.
      ”ऊपर नीचे..?’’
      ”बंधू सरकार तेरे को गरीब मानती नही और लोग तुझे अमीर समझते नही.’’
      ”अभी तो बोल रहा था कि गरीब नही हूं और अब…”उसने मेरी बात काट दी और बोला, ‘’देख भाभी की नजर में तो तू गरीब है. तेरे पास कार नही है. तेरे पास खुद का मकान नही है. बहुत अच्‍छी कॉलोनी में रहता नही है.नौकरी भी परमानेंट नही है. चिटफंड कंपनी का डिब्‍बा कभी भी गोल हो सकता है. छोड़, जस्‍ट डांस ही देख लेता हूँ. अरे ये तो रिपिट है.वैसे भी अगले राउंड में जाने वाले को एक करोड़ मिलेगें.”
      ”एक करोड़ मिल जाये तो…”
      ”तो भी भाभी नही मिलेगी.’’ अठ्ठाहास था सपनों को फूंक देने वाला अचानक गिरा देने वाला.जैसे आसमान में उछलकर भाग गया अब धरती पर पटक दिया. बुरा लगा. बहुत बुरा. मूड़ खराब हो गया. चेहरा उतर गया. चाकू ढूंढने लगा हूँ.
      प्‍याज काटते वक्‍त नम हुई आंख. प्‍याज का असर नही था. सपनों की टूटन थी.प्रेमशंकर  टीवी देखते हुए बोला,’’करोड़पति बनना और जिससे प्‍यार करते हो उसका पति बनना दोनों अलग-अलग है. प्‍यार करो अपनी तरफ से. वो चाहे न चाहे. आगे बढे न बढे. एक बात बताऊँ सच्‍चा प्‍यार तो एक तरफा होता है. अपने धुन में मगन रहना. सपनो को खोजना. सपनो में होना. शादी वादी का इससे कोई लेना देना नही है. प्‍यार को प्‍यार ही रहने दो इसे कोई नाम न दो.’’ वो गुनगुनाता है. मैं चुप हूं कि अब जस्‍ट डांस चल रहा है.
       एंकर सौमित्रा को बंगाली बताता है,भारत माता बनकर करती है डांस, गाने के शुरुआत में गूंजती है आवाज हमारी भारत माता जकड़ी है,आतंकवाद, भ्रष्‍टाचार, तानाशाही में आरक्षण में….’’ भारतमाता बनी हुई सौमित्रा ने देश भक्ति की लहर फैला दी.ये किसकी भारतमाता है,जो आरक्षण से भी जकडी है?सवाल दिमाग में घूम रहा है.
       प्रेमशंकर जस्ट डांस देखते हुए कहता है,’’अबे सारा देश आजादी की बात कर रहा है और तू जस्‍ट डांस देख रहा है. तू तो पक्‍का देशद्रोही है.’’ वो हंसता है.ब्रेक आते ही चैनल बदलता है. समाचार चैनलों में दूसरी आजादी जनलोकपाल, भ्रष्‍टाचार के अलावा कोई शब्‍द सुनाई नही दे रहा है. कोई-सा भी चैनल लगा दो, यही बात यही चेहरे है. जैसे कोई विज्ञापन हर चैनल पर दिखता है. एक ही वाक्‍य है.एक ही भाव.एक लाइन में विज्ञापन एजेंसी सारे चैनल से खरीद लेती है. चाहो न चाहो वो वाला विज्ञापन देखना ही पड़ता है.विवशता, सहजता में बदल दी गई है. अब गुस्‍सा नही आता है. वही वाला विज्ञापन हर जगह होगा तो चुप रहो, देखो सुनो उसी तरह का यह मामला है, चुप रहो और हां इसके खिलाफ कोई भी सवाल किया तो सब ऐसे टूट पड़ते है कि लगता है, गुनाह किया है. मैनें फेसबुक पर इसे अतिरंजित परिवर्तन की बात कही, जो किसी और के दिमाग से चल रहा है.जिसका मकसद स्पष्ट नही है, तो कईओं ने अनफ्रेन्‍ड कर दिया. असहमति पढ़ना सुनना ही नही चाहते है.और दाल चढ़ा देता हूं मैं सिगड़ी पर.
      प्रेम शंकर बताता है,’’ देखो किरण कैसे डांस कर रही है.विश्‍वास का कपड़ा किरण ने सिर पर डाला और डांस….भाषण के बीच में डांस होना चाहिये कि नही?’’
      ”ये तो जस्‍ट डांस का प्रायोजित रियलिटी शो है.” कुकर की सीटी ढूंढ रहा हूँ. सीटी बजाने के लिये जरूरी है. प्रेम शंकर को गुस्‍सा आ गया, ”यार ये बता भ्रष्‍टाचार से सभी परेशान है. है कि नही. सब चाहते है भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो देश.”
      ”हां चाहते है सब लेकिन होना नही चाहते और ये जो आंदोलन है न जिस भ्रष्‍टाचार को रोकने की बात कर रहे है,उसके नियम कायदे कानून सब पहले से है बस उन्‍हें इम्‍प्‍लीमेंट करना है. उसे छोड़कर नया ढांचा खड़ा करना मतलब आयोग बनाने जैसा है और तू जानता है आयोग क्‍या करते है? कैसे करते है काम. किसी एक का काम नाम बता जो पूरी ईमानदारी के साथ अपना काम कर रहा हो.”
      ‘’लेकिन विरोध करना तो गलत है.’’
      ”जो मुझे ठीक न लगे, जिसके तौर तरीके,उद्देश्य, जमा हुए लोगों के स्‍वार्थ दिख रहे है, तो क्‍या अपने आपसे झूठ बोलूँ? अपने साथ मैं क्‍यों करूं भ्रष्‍टाचार?”
      ”सच तुमको दिखता नही. ये जिस चिटफंड कंपनी में काम कर रहे हो न, वो किसको सहारा देगी? किसे दिया है? तुम लोग अपना मुनाफा देख रहे हो.चिटफंड कंपनी का कर्ताधर्ता अपना पैसा बना रहा है और बेवकूफ कौन बन रहा है. जनता और तू आंदोलन का विरोध कर रहा है, तू…”
      ”उस लोकपाल में चिटफंड कंपनी शामिल नही है.वो सिर्फ बातें है और हां ये भी बता दूं ये दूसरी आजादी की बात मुझे अपील नही करती है.’’ कुकर की सीटी बजती है बातों को रोकती है.
      अपने घर से इतनी दूर आकर अकेला रहता हूँ. इस कंपनी से भागने का सालभर से सोच रहा हूँ लेकिन मेरा पैसा अटका पड़ा है. हर बार आश्‍वासन दे रहे है. कमीशन के आकर्षक पैकेज के अलावा इस कंपनी का बड़ा नाम, बड़े काम देखे थे तो लगा कि लाइफ बन जाएगी लेकिन पगार के लाले पड़ रहे है. बड़े-बड़े विज्ञापन में भारत माता दिखाता है मालिक. मालिक का फोटो अपने बेटे-बहुओं के साथ इस तरह से दिखाता है कि लगता है ये ही है राष्‍ट्र निर्माता परिवार.  सोचते हुए मन ही मन में  हंसी आती है. इसने भारत माता की जय बोला और अब दूसरी आजादी वालों को देखता हूं तो लगता है आजादी की बात तो सब करते हैं, सब एक जैसे है. सोचता हूँ बोलना नहीं क्‍योंकि असहमति व्यक्त करना गुनाह बना दिया गया है.
      इतनी देर में घूम-फिरकर फिर जस्‍ट डांस देखने लगा हूँ. पता नहीं पुराने एपिसोड एक के बाद एक क्‍यों दिखा रहे हैं. इतना टाइम है कि उसे खपाने के लिए बस जस्‍ट डांस…
      शरमाता हुआ लड़का आया. बेहद दुबला पतला. जज बनी हुई सराह खान मजे लेने लगी हैं. उसने नाम बताया जयेश. आप्रवासी भारतीय, एन.आर.आई. जिनके भीतर गाने और देश प्रेम भरा हुआ है, बताता है कि गुजराती है.खुश होकर सराह खान बताती है कि वैभवी भी गुजराती है. उसका अन्‍दाज इस तरह का है कि वैभवी भावी दुल्‍हन है. वैभवी इस तरह से भाव बनाती है कि वह भावी दूल्‍हे को देख रही हो. गुजराती होने से लगा, प्रांत-भाषा मैच कर गए. तो सराह ने कहा कौन हो? वो भाषा प्रांत के बाद जाति पर पहुंच गई.
      मेरे कान खड़े हो गए. मेरे भीतर का कोई बाहर आने वाला है कि जैसे मुझसे पूछ लिया गया हो, तुम्‍हारा सरनेम क्‍या है?  मैं बोलता उसके पहले जयेश बोला,”पहचानो.’ मैं दंग हूँ.सरेआम जाति पहचानो अभियान चल रहा है.अखबार की वैवाहिकी से विज्ञापन पढने लगे हैं ये. प्रेम शंकर अधीरता में दोनों जज का सहयोगी बन गया. सरनेम पूछा जाना, मतलब विवाह की सबसे बड़ी शर्त की पूर्ति. कि इठलाती है वैभवी और शर्माती हुई सराह पूछती है,, ”पटेल हो? ”
      ”ना.’ वो माइक हाथ में लेकर अपनी कमर को इस तरह से हिलाता है कि उसका शरीर हिलने लगता है.वो कहता है,’’सोचो?’’ भारतवंशी नये लड़के को यह गर्व है कि वह उसकी जाति जानने वालों के जिज्ञासा में है.बोलती है वैभवी, ”शाह हो.’ और वह लड़का उछलता है कि मुझे पहचान लिया गया है.खुशी है उसके भीतर.वो बिखर रही है कि दोनों जज खुश हैं कि शाह मिल गया शाह… जाति आखिर पहचान ली गई.वे तीनों खुश हैं.खुश है तमाशबीन कि देखो, ये जान गए जाति को.
      सराह को अपने ज्ञान के परिपूर्ण का अहसास हुआ.मुझे अपूर्णता का अहसास हुआ कि कैसे जान लिया? रंग है, रूप है, शरीर है, कपड़े हैं, तो किस आधार पर तय कर लिया कि ये कौन है? सुभाष को पंजाबियों ने क्‍यों खारिज किया? सुभाष की उदासी मेरे भीतर उतर आई, क्‍या सुभाष पंजाबी होता तो 50 हजार डॉलर कमाने वाली शर्त लागू होती? विदेश में रहकर इतना प्‍यार करने वाले का पेशा तय करता है कि किससे शादी करने दी जाएगी.प्‍यार या पेशा? पेशा से पैसा बनता है, पैसा चुनेंगे.पैसा पेशे से आएगा, तो पेशा किससे आएगा? हमारे देश में पेशा किससे आया?वर्ण व्यवस्था से आया है पेशा और फिर इससे जाति.
       जयेश के डांस पर सराह हंस रही है, वैभवी लोट-पोट है कि सब हंस रहे हैं, ये डांस नहीं था.एक मिक्‍चर था, जिसमें न लय है न ताल इसलिए सब हंस-हंसकर बेहाल हो रहे हैं कि मैं अभी उदास हूं कि वैभवी ने किस आधार पर तय किया कि ये पटेल नहीं है, तो शाह  ही  होगा?
      मेरे गांव झापादरा से गुजरात की सीमा करीब बीस कि.मी. है.हमारे इस इलाके में दूर-दूर तक हम ही हम रिश्‍तेदार हैं और कोई भी नहीं है पटेल या शाह.तो जिस गुजराती को मैं जानता हूं, उसे ये जज क्‍यों नहीं जानते, क्‍यों नहीं उनकी जुबान पर आया कि तुम भूरिया हो, परमार, बुनकर हो?
      सुबह हो गई.प्रेम शंकर  अपने घर नही गया और मै सपने देख रहा था.वो आएगी और दरवाजा खटखटाएगी.अहसास हुआ कि सचमुच मेरे ही घर का दरवाजा खटखट कर रहा है.जागते हुए लगा कि दरवाजा तो पिटा जा रहा है. इतनी सुबह कौन हो सकता है? हल्‍की सी रोशनी दरवाजे के भीतर से आ रही है.लाईट बंद करके सोता हूँ तो सुबह का अहसास बाआसानी से हो जाता है फिर आज तो इतवार है और नौ से पहले उठता नही हूँ. इतनी जल्‍दी कौन होगा? आंख मलता हूँ और पूछता हूँ, ”कौन है?उस आदमी ने अनायास पूछ लिया, ”चल भई अपना नाम बता.’ उसके हाथ छोटा सा काला बैग है.समझ ही नही पाया क्या हो रहा है.
        ”क्‍यों?’’ जानना चाह रहा हु कि ये आदमी जिसके हाथ में रजिस्‍टर, फार्म, बैग है, वो इस तरह कैसे नाम पूछ सकता है. वो बोला ”जाति वाली सेंसस है, जनगणना. आई समझ में.” गुस्‍सा था उसकी बात में जैसे मैंने कोई गुनाह किया हो. मेरा नाम पूछने से पहले यह बताना था. लेकिन वो ठिठ सा खड़ा देखता रहा. चुप था. मैं भी कुछ बोला नही.वो थोड़ी देर बाद बोला,’’ नहीं बताना हो तो मत बता.कोई जरूरी तो नही है? जाऊँ क्‍या?”
      ”आप तो बुरा मान गए.” मैंने कहा.जबकि उसको यह कहना था.फिर मैंने क्यों कहा? नींद,सपना,दरवाजा पिटने से बड़ा गंदा उसका बर्ताव लग रहा है.
      ”चलो छोड़ो. नाम बताओं?” उसका पेन तैयार था.
      ”आकाश भूरिया.”
      ‘’पिता का नाम?’’
      ”शान्तिलाल भूरिया.”
      ”उम्र?”
      ”26”
      ”शादी तो हो ही गई होगी?”
      ”नहीं”
     ”हमारे यहां तो इस उमर में दो तीन बच्‍चे होके मामला खत्म हो जाता है.” पेन वाला ही ही करने लगा. उसका इस तरह ही ही करते हुए हंसना बुरा सा लगने लगा.
      उसने कहा, ‘’लो इस पर साईन करों.”
      मैंने कहा क्‍या लिखा है? जरा देखूँ.” उसने कह,’’हम टीचर है. गलत नहीं भरते. काहे का टाईम खराब कर रहे हो?’’ मेरी जिज्ञासा को उसने अनावश्‍यक समझा और थोडी देर चुप रहने के बाद भरा हुआ फार्म मेरी तरफ सरका दिया. मैंने हंसते हुए कहा, ”आपने तो मेरी जाति भी लिख दी. मुझसे बिना पूछे.”
       ‘’टीचर हूँ सब जानता हूं और वैसे भी सबको पता है भूरिया एसटी में आते है.” वो अपनी जानकारी सगर्व उंडेलता हुआ बोला. मैंने कहा, ”धर्म में ये क्‍या लिख दिया आपने, बिना पूछे ही.”
        ‘’तो मुसलमान कर दूँ?’’ वो चिढ़ते हुए बोला. उससे सवाल करना अर्थात उस पर भरोसा न करना जैसे लग रहा था उसे.
         ”क्‍यों?”
      ”तो वैसे भी वनवासी इसाई कर्न्‍वटेड होते है झाबुआ के.”
      ”आपको नहीं लग रहा कि आप कुछ ज्‍यादा बोल रहे है.वैसे भी जातिवार जनगणना में सारी जानकारी पूछकर ही लिखनी चाहिए. आपने तो मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरी भाषा सब अपने मन से भर दी.”
     ‘’तो क्‍या गलत भरी?” टीचर अपने अंहकार के शिखर पर जा रहा था.
        ”हॉ गलत लिखी है जानकारी.” मैं अपनी नाराजगी जाहिर करता हूँ. वो जो ज्ञानी बन बैठा था जिसे लग रहा था कि वो सारी जानकारी सही सही भर चूका है. वह बोला,’’ धर्म में क्‍या लिखवाना चाहते हो, बता दो?”
      ”आदिवासी”
      ”आदिवासी?” आदिवासी कोई धर्म नहीं होता है.”
      ”आप इसका फैसला करेंगे? हम जो कहे वो आपको लिखना पड़ेगा.’’
      ”इसमें धमकाने की कोई बात नहीं है मेरे बाप का क्‍या जाता है, जो कहोगें वो लिखूंगा…लिख दिया अब और क्‍या बदलवाना है बता?”
      ”भाषा? भीली है. भीली लिखिए. मेरी मातृभाषा हिन्‍दी नहीं है.”
      ”भीली, भिलीली, निमाडी, मालवी, मारवाडी, सब हिन्‍दी ही तो है.”
      ”इसमें तो आप वहीं लिखिए जो लिखवा रहा हूं और यह भी बता दूँ ये हिन्‍दी नहीं है.”
      ”कौन सा फरक पड़े, कुछ भी लिखवाओ.” उसे जाने की जल्दबाजी थी.उसे उम्मीद नही थी कि कोई  इस तरह कहेगा,टोकेगा.
      ”फरक तो बड़ा पड़े. आपने मेरी जाति, भाषा, धर्म, व्‍यवसाय कुछ भी नहीं पूछा.आपने सब अपने मन से लिखा.”
      ”सड़क को देखकर पूछूँ, तेरा रंग क्‍या है? डामर के साथ क्या मिलाया? ये तो बेवकूफी होगी न. क्योंकि ये सब मेरको मालूम है. मालूम है तुम लोग वनवासी होते हो. झाबुआ,भूरिया तो तुमने बताया बाकी तुम्‍हें देख सुनके सब लिख लिया तो क्‍या गलत लिखा मैंने?” मेरी खिल्‍ली उड़ाने, अपने आपको सर्वज्ञानी समझते हुए उसका अंहकार बोला. मेरे बदन पर मेरे दिमाग में अपने अधूरे गंदे ज्ञान को डलवाने की कोशिश, सर्वे करने वाला कर रहा था. उस किचड़ को साफ करने के इरादे से पूरी मजबूती से मैंने कहा,‘’आपने मेरा धर्म अपने मन से मान लिया. मेरे सरनेम से आपको पता चल गया कि मैं कौन हूँ?आपको पता है कि झाबुआ में सफाई करने वाले का भी सरनेम भूरिया है.टोकरी बनाने वाला भी भूरिया है.तीर चलाने वाला भी..फिर कैसे तय कर लिया कि मेरी जाति क्या है? आपने मेरी भाषा क्‍या है? यह तक नहीं पूछा, लिख दिया, हिन्‍दी. मुझे अपनी भाषा लिखवानी है, मेरी भाषा भीली है. भीली और मैं आदिवासी हूँ. भील.भील लिखिए.”
      वो समझ गया. पेन निकालकर बोला,”अपना क्‍या जाता है, जो सामने वाला लिखवाता है, वो लिख लेते है. टाईम खोटी नहीं हो इसलिए झटपट लिख लिया. बुरा मानने की तो कोई बात ही नहीं है. इस तरह बोलने की जरूरत ही नहीं थी कोई.” उसके भीतर का संचित ज्ञान टूटने का अहसास उसके चेहरे से,उसकी आवाज से महसूस कर रहा हूं. अपने आपको मजबूती के अहसास की राह पर चलता देख रहा हूं.
      ”मैंने कहा चाय पियेगें?”
      ‘’भोत कुछ पिला दिया, अब कुछ नहीं पीना है, धन्‍यवाद श्रीमान आपका. आप तो यहां सब पढ़-पूढ़कर साईन करों दो बस.” इस आदमी का चेहरा हाव भाव देखकर लगा कि ये जस्ट डांस का एक प्रतिभागी है,जिसे अपनी प्रस्तुती पर शाबाशी नही मिली और इसलिए नाराज सा हो गया है.मुझे लगा मेरे आसपास न जाने कितने लोग है जो जस्ट डांस करते है या करना चाहते है.उन्हें लगता है कि लोग उनके बारे में पूछे,बात करे और शाबाशी दे.वे किसी की तारीफ़ नही करेंगें.ढंग से बात नही करेंगे लेकिन चाहेंगे कि सामने वाला उसके सामने बिछ जाए.दरी चादर बन जाए.
      घर के भीतर जयशंकर से एनडीटीवी कह रहा है,”जीत गए अन्‍ना जीत गया इण्डिया.” जश्‍न मनाओ दोस्‍त ने कहा.उसने बताया कल सुबह १० बजे अन्‍ना का अनशन टूटेगा. स्‍टार न्‍यूज ने आधी जीत का जश्‍न बताया है.मैंने कुछ नहीं कहा. देश जीत गया, इस पर अटक गया था. यह कौन सा खेल है और देश के नाम पर क्‍यों खेला जा रहा है? पूछना था लेकिन यह दौर ऐसे सवालों को सुनने वाला नहीं है.यहां जवाब नहीं मिलेंगे ऐसे सवालों के बस वे जो कह रहें हैं.मान लो जैसे  टीचर ने मान लिया था.उसके बारे में सब कुछ. अब लोग टीचर में बदल गए है और मेरा दोस्‍त टी.वी. बन गया था जो नाच रहा है, नचवा रहा है.सारा जंहा डांस कर रहा है सब कर रहें हैं डांस. समाचार डांस के इस रियलिटी शो का सीधा प्रसारण देखने की बजाय मैं मनोरंजन चैनल पर जस्‍ट डांस देखने लगा कि याद आया पिछली बार इस शो में एंकर ने जज वैभवी से कहा था आप स्‍टेज पर आकर डांस करें तो नहीं मानी वैभवी जो दूसरों को नचवाती है कि एंकर कहता है, “सारा देश चाहता है. ये पब्लिक है और आपको डांस करना पडेगा.” देश की बात सुनकर वैभवी डांस करती है.
      इतवार की सुबह में उजाले में मैंने साईन कर उसे धन्‍यवाद कहा.जयशंकर अपने घर गया.नहा धोकर खाना पकाना शुरू ही किया था कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.फिर उसकी याद आते ही मुस्कुराहट छा गई.गिलकी काटते काटते चाक़ू हाथ में लेकर खडा हो गया.
      “मैं.” मैं से तत्‍काल अन्‍दाज लग जाता है ये चपरासी, चौकीदार, घरेलू नौकर, सारे काम करने वाला गुलाब.गुलाब नाम है इनका. दरवाजा खुलते ही गुलाब बोलता है ”सेठजी ने बुलाया है.”
      एरिया मैनेजर को ये आदमी सर,साब नही बोल पाया.उसकी निगाह में ये सेठ है.सेठ…हंसी आती है लेकिन उससे सवाल करता हूँ,”क्‍यों?”
      ”नी पता बोले जल्‍दी बुलाके ला जैसा है वैसा ही. टेम नी करने का बोला.” उसकी आवाज में सेठजी का हुकुम था. उसके शरीर में नौकर का अहसास था. उसकी आंखों में हुकुम तामीली सफलता पूर्वक पूरा करने का अनुरोध था. विनय था नम्रता से लाचारी थी.उसे इस तरह से भरकर भेजा गया था कि वो यहाँ वहाँ से तरह तरह से बिखर रहा था. संभलते नहीं बन रहा था उसे. बस यह हाव भाव थे कि मुझे उठाकर साथ में ले आना. उसे देखकर सिर्फ पानी पिया और ताला लगाकर अपनी मोटर साईकिल पर उसे बैठाकर निकल गया.
      खेत में बसी नई कॉलोनी में है हमारे एरिया मैनेजर का नया मकान, बंगला.जिसे सडक कहा गया था वो  बरसात में बह गई है. खेत की काली मिट्टी का कीचड़ है. जा नहीं सकते. कीचड़ में फंसने और गंदा होने के डर के कारण में बाइक कोने में खडा कर देता हूं. साबुत जगह को देखता हूं पैर रखता हूं गुलाब की निगाह साबुत जगह नहीं देख रही है.वो अपने  प्‍लास्टिक के जूतेके साथ किचड़ की परवाह किये बिना आगे निकल जाता है. वक्त से पहले पहुंचकर दिखाना है सेठजी को कि देखो, जो हुकुम दिया वो कर आया. आदेश का पालन कर लिया. उसकी तरफ नही देखता है एरिया मैनेजर.वो मोबाइल पर भडभडा रहा है. उसने गुलाब  के विजयी भाव को देखा ही नहीं और मोबाइल कान से हटाकर पीठ की तरफ कर बोलता है, “अरे वो नालायक भूरिया कहां है?”
      उसकी तल्ख आवाज मेरी कानों में पडी. लगा जैसे वो गुलाब को समझता है, वैसा ही मुझे भी समझता है. तभी तो इतनी बेअदबी, इतनी वाहियात ढंग से बोला.मेरे सामने हमेशा मीठा बोलने वाला मेरा हित चिंतक मुझे क्या समझता है? कुछ टूट गया.वो बोलते बोलते दरवाजे के पास आया.उसने देखा.झेपा.कुछ गलत हो गया का अहसास उसे हुआ.उसने कहा,”अरे आकाश… सॉरी यार इतनी सुबह तुम्‍हें कष्‍ट दिया. आय एम रियली सॉरी. किंतु बात ही कुछ ऐसी थी कि बुलाना पडा. तुम तो जानते हो यहां तुम्‍हारे सिवा मेरा कौन है? एरिया मैनेजर का पोर-पोर माफी, विनम्रता और मेरे सिवा और कोई न होने के कारण अपना होने का अहसास दिलाना चाह रहा है. इसका मुझ पर असर नहीं पडा. चांटे के बाद गाल सहलाने से दिल के भीतर की टूटन इतनी आसानी से नहीं जुडती.
      “प्‍लीज यार.कार स्टार्ट नही हो रही है और अर्जेंट जाना है.तुम्हें पता ही होगा.दूसरी आजादी मिल गई है.सेलिब्रेट करना है.दिल्ली में वो ज्यूस पियेंगे इधर हम भी ज्यूस पियेंगे..अंगूर का….चलो जल्दी करो.तुम दोनों कार को धक्‍का लगा दो. मै स्‍टार्ट करता हूं. जल्‍दी… प्‍लीज जाना है.” विनय और परेशानी के हावभाव के साथ बोलते बोलते वो वो कार की चाबी लेने घर के अंदर जाता है.लगता है  ये भी डांस कर रहा है.जस्ट डांस करों और एक करोड़ जीतों,देश को जीत लो.बस एक डांस.सोचता हूँ और चुप होकर  बाहर खड़ा हो जाता हूँ.मेरे साथ गुलाब भी खड़ा है,जमीन में नजर धंसाकर.उसकी नजर उप्पर उठ जाए कि गुलाब से पूछता हूं, “कहाँ जा रहे है साब?”
      ” नी पता. बोल रहे थे दोस्‍तों के साथ कोलार डेम निकलना है. पाल्टी  है.”
      काटो तो खून नहीं का अहसास हुआ, अरे ये कौन सा तरीका है कार को धक्‍का लगाने के लिए और वो भी पिकनिक के लिए? सुबह सुबह बुलाया. मैं समझ ही नहीं पाया.तभी वो हडबडाता हुआ नाचता हुआ आया और बोला,” तुम दोनों धक्का मारो. मैं स्‍टार्ट करता हूं.”
      “कार मैं भी चला लेता हूं. स्‍टार्ट मैं करता हूं.” मैंने चाबी के लिए हाथ बढाया तो एरिया मैनेजर का चेहरा फक्क से उतरा गया.
      “क्‍या बात करता है? तू धक्‍का लगा मेरे दोस्‍त.” मुस्कारने की असफल कोशिश करते हुए बोला.
      “धक्का आप लगा लो. स्‍टार्ट मैं करता हूं.’’ मै अडिग था. मेरे इरादे स्‍पष्‍ट थे. कीचड़ में खडे होकर पीछे से धक्‍का लगाते हुये किचड झेलने का मन नहीं था. इस आदमी ने जिस तरीके से नालायक कहा है वो पता नहीं मुझे क्‍या समझता है.उसे देखता हूँ वो हक्‍का-बक्‍का है. उसे समझ नहीं आ रहा कि मेरा मातहत, मेरे से नीचे वाला ये भूरिया कैसे ऐसे बोल सकता है. मैं समझ चुका था इस आदमी की निगाह में, मैं झाबुआ का आदिवासी हूं जो मजदूरी करता है. सुबह हो या रात बस मजदूरी. हर बात मानने वाला और अब नहीं मान रहा है.
      वो कुछ सोच रहा था कि बोला, “रहने दो आकाश. तुम जाओ.” मुझसे नजर मिलाये बगैर वो अपने घर के भीतर घुस गया. उसे अभी भी उम्‍मीद थी कि मै कह दूंगा, ठिक है धक्‍का लगाता हूं लेकिन मैंने कहा नहीं.
   ‘’गुलाब, चल भाई.कीचड़ में कब तक खडा रहेगा?’’ मैं कहता हु.
वो झिझकता है.हाथ के इशारे से उसे बुलाता हूँ.गुलाब कीचड़ से बाहर निकलने के लिए कदम उठाता है.
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