कहानी ::
पाप बट्टा पुण्य : सुधाकर रवि
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सुधाकर रवि
“उस बुढ़िया को समझा दो, हमसे झगड़ा मोल लेना ठीक नहीं होगा।“
“अब क्या कहें मोहन बाबू, उस रमरतिया को कितना बार समझाए कि मोहन बाबू की दूकान के सामने से अपना झोपड़ पट्टी हटा ले। लेकिन कहती है कि पेट पालने के लिए उसका झोपड़ पट्टी ही एकमात्र सहारा है।“
“उसको झोपड़ पट्टी बनाने के लिए हमारे दूकान के सामने ही जगह मिला था , इससे हमारा धंधा कितना चौपट हो रहा है । वह बुढ़िया ऐसे नहीं मानेगी। उसको बताना ही पड़ेगा कि मोहन सिंह चीज़ क्या है ।“
मोहन सिंह उस क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्ति थे, कहते हैं कि विद्यार्थी जीवन में वे खूब राजनीतिक लाठी भांजे , लेकिन एक बार भी लाठी सही जगह नहीं लगा। पढ़ाई में मन लगता नहीं था सो नौकरी कहीं मिली नहीं, थक हार के जिंदगी काटने के लिए एक बीज भंडार का दूकान खोल लिए। इलाके में जान पहचान थी ही सो उसके दम पर दूकान भी चल निकली । कमाई अच्छी हो रही थी लेकिन फिर भी मोहन सिंह खुश नहीं थे। कारण था उनके दूकान के सामने बने झोपड़ पट्टी में चल रहा रमरतिया का सत्तू दूकान। सत्तू दूकान से बीज दूकान को कोई फर्क पड़ता नहीं था , लेकिन मोहन सिंह को ऐसा लगता मानों उनके ताजमहल के सामने कोई गदहा बांध दिया हो। सो झोपड़ पट्टी हटाने का अल्टीमेटम रमरतिया को मिल गया था , फिर भी वह टस से मस न हुई।
गर्मी इतनी नहीं थी कि सड़क पर चलने में कोई ज़्यादा परेशानी हो। फिर भी रामनगर मोहल्ला खाली-खाली सा था। सिर्फ दिहाड़ी के मजदूर सड़क से ईंट ढोते दिखाई दे रहे थे।
“का भाई रमेसर, आज मन तुम्हारा बहुत बेचैन लग रहा है। पांच मिनट में दस बार घड़ी देख लिए। कोई बात है का ?”
“हाँ रामस्वरूप भाई , कुछ खा कर नहीं आएं हैं और बारह बजे के बाद भूखे पेट हमसे काम नहीं हो पाता है। लगता है ईंट ढुलाई का काम एकदम छोड़ छाड़ के रमरतिया के सत्तू दूकान पहुँचे और गटागट दू गिलास सत्तू पी जाएँ। रमरतिया के दूकान के सत्तू पी के देह के सब थकान मिट जाता है। चलो वहीं , सत्तू पी कर आते हैं तो फिर काम किया जायेगा।“
रमरतिया की सत्तू दूकान दिहाड़ी के मजदूर का अड्डा था। सब मजदूर सत्तू खाने और पीने वही जाते थे। झोपड़ पट्टी के अंदर-बाहर मजदूरों की भीड़ लगी रहती। वैसे उसकी दूकान कुछ खास थी भी नहीं। खास तो थी रमरतिया की बोली। जितना भी मजदूर आते सब से घर परिवार का हाल-चाल जरूर पूछती। सब लोग भी हाल खबर ऐसे सुनाते मानो रमरतिया कोई घर का आदमी हो।
एक बज गया था, रमरतिया की दूकान पर मजदूर सब जुटने लगे थे । रामस्वरूप और रमेसर सबसे पहले ही दूकान पर पहुंचे थे , झोपड़ी के अंदर दस-बारह मजूर और बैठे होंगे। रमरतिया सबको सत्तू पिला रही थी। सत्तू पीकर हाल चाल पूछ ही रहे थे कि एकाएक मजदूर जमीन पर गिरने लगे. मुंह से झाग फेंक दिया। यह देख के रमरतिया को काठ मार गया। पल भर में बाजार में शोर हो गया। बाकि मजदूर जो दूकान पर जुटने लगे थे सब हड़क गए। सब मजदूर को सदर अस्पताल लाया गया। लेकिन होना था जो हो गया , कुछ मजदूर तो वही मर गए, बच जाने के संभावना में बाकि मजदूर पटना भेजे गए , उनमे से कुछ एम्बुलेंस में मरें तो कुछ पीएमसीएच के बेड पर ।
भीड़ तो किसी की होती नहीं है और न किसी की सुनती है। गुस्साए भीड़ ने पहले तो रमरतिया को पीटा, गुस्सा फिर भी शांत नहीं हुआ तो सत्तू दूकान में आग लगा दी । बांस फुंस की झोपड़ पट्टी पल भर में जल कर राख हो गई ।
आज साल भर बाद मोहन बाबु की दूकान जस का तस वही है , नहीं है तो रमरतिया की सत्तू दूकान। उसकी जगह भगवान राम का एक सुंदर मंदिर बन गया है । मंदिर के कारण मोहन बाबु की दूकान पर भीड़ भी रहती अब । मंदिर पर जितने लोग पूजा करने आते सब मोहन बाबु की प्रशंसा करते कि इस अपवित्र हो चुके जगह को मंदिर बना कर पवित्र कर दिए ।
रमरतिया कहाँ है किसी को नहीं पता, उसकी झोपड़ पट्टी की जगह भगवान राम मंदिर बन गया है, दूकान पर बिक्री भी बढ़ गयी है। लेकिन फिर भी मोहन सिंह को चैन नहीं। मंदिर की घंटी कोई जोर से बजा दे तो उनका ह्रदय बेचैन हो जाता है। कोई आदमी दो पल ज़्यादा उन्हें घूर ले तो उनका डर बढ़ जाता कि कहीं इसे पता तो नहीं , कहीं इसने देख तो नहीं लिया था कि उस रात रमरतिया की झोपड़ पट्टी में घुस कर सत्तू में जहर मैंने मिला दी थी। फिर सीना चौड़ा कर सोचते मजदूर तो रोज़ मरते हैं भगवान राम का मंदिर रोज़ थोड़े ही बनता है। मैंने यह पुण्य का काम किया है, पुण्य का।
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सुधाकर रवि कवि-कथाकार हैं और हिन्दी साहित्य के छात्र हैं. इनसे sudhakrravi@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.