राजकमल चौधरीक किछु मैथिली कविता ::
हम कविता लिखइ छी,
सदत अपना हेतु
मात्र अपनेटा हेतु…
अहिपन
अहिपन मे नहि लिखू फूल पात-लता-चक्र
हे स्वप्न-संभवा कामिनी,
आब नहि घोरू सिनूर आ उज्जर पिठार!
जखन पूर्णिमेक साँझ मे
चन्द्रमा भ’ गेल छथि पीयर आ बक्र
आब नहि फोलि क’ राखू
अप्पन मोनक दुआर!
हे स्वप्न-संभवा कामिनी,
आब एहि घर-आङन मे अनागतक प्रतीक्षा
जुनि करू, जुनि करू…
अहिपनक फूल-पात-लता बनि जायत
गहुमन साँप,
कोनो देवता नहि क’ सकताह अहाँक प्राण-रक्षा
पावनिक राति बीति जायत पूजा-विहीन
परिणय-विहीन!
सभा–गाछी
सभागाछी मे आब लोक नहि
बैसत माछी
भन्-भन् करैत, नहुए गबैत मा-मा
छी-छी
गाछी!
पाँजि, मूल, वंशक हृत्पिंडपर बैसल
बसाओल गेल
सभा-गाछी मे –
आब अन्तर नहि रहि जायत लोक, आ
माछी मे!
विद्यापतिक प्रभाव आ मिथिलाक नारी
गाम त्यागि चल गेलाह बोलट झा बृन्दावन
गाबिक’ नचारी
विपरीत रति विकलांग वर्णन सुनि वृद्ध
पाठकजी कयलनि बियाहक तैयारी
भगवतीक स्तुति पढ़ि हीरानन्द ठाकुर
शक्ति-धाह सँ बनलाह कुविचारी
मुदा,
सौंसे विद्यापति हजार बेर आङन ओसार मे
पर्व मे, तिहार मे
बियाहक इजोत मे, कोहबरक अन्हार मे
गाबि-गाबि
जहिना छलीह तहिना छथि
मिथिलाक नारी!
महावन
(1)
जीवनक एहि समय-दाहक महावन मे, कतेक युग सँ
ताकि रहल छी-
कोनो अरूप देवता पर चढ़ाओल गेल किरणमाला
हम सभ अनिकेतन, अपराजित;
एकटा हेरायल रस्ता
एकटा हेरायल स्वप्नक लाल-उज्जर तारतम्य,
एकटा हेरायल मुख ककरो,
हम सभ अनिकेत, अपराजित कतेक युग सँ ताकि रहल छी
जीवनक एहि प्राण-पावक महावन मे
किरणमाला!
अन्हार मे भेटैत अछि अतीत-प्रेतक वृक्ष-शव अनेक!
पयर तर ओंघराइत छथि स्वर्ग-पतित
अप्सरा!
आँखि मे जाड़ेँ कँपैत अछि ज्वरग्रस्त चिड़ै चुनमुनी!
उचरैत अछि एकटा कारी-पीयर गिद्ध बारम्बार
हमरे नाम-
चलू हे कवि, एहि बेर अहीं चलू भुतहा मसान
खापड़ि मे भूजू अहीं अप्पन प्राण!
पयर तर ओंघराइत स्वर्ग भ्रष्ट अप्सरा, आ
हेरायल स्वप्नक लाल-उज्जर तारतम्य
हमरा सभ केँ-
आबो विकल व्यथित क’ रहल अछि, अकारण!
आबो मथि रहल छथि नीर-सागर,
देव-दानव अविवेकी;
आबो नचिकेता सदिखन पुछैत अछि धर्मराज सँ
जीवन आ मृत्युक रहस्य;
आबो एकटा अश्वत्थामा हाथी निहत होइत अछि
कोनो युधिष्ठरक
सत्य आ नैतिकताक सुरक्षार्थे
-मुदा,
ई सभटा पौराणिक दुष्काण्ड होइत अछि, एही महावन मे
हमरे सभक अन्तरंग मे होइत अछि
द्रौपदी-चीर-हरण
आ, राजा जनमेजयक विख्यात नाग-यज्ञ!
(2)
अन्हार मे भेटैत अछि, अतीत-प्रेतक शव-वृक्ष अनेक;
ककरो एकटा चिन्हार मुख
नहि भेटैत अछि, जे तकरे सँ पूछल जाय-
ओहि मन्दिरक मार्ग;
पूछल जाय ओहि अरूप देवताक हिरण्यगर्भ सिंहासन;
जाहिपर उत्सर्ग कयलहुँ किरणमाला
हम सभ
ताकि रहल छी मनुपुत्रक लेल!
महावन मे गुँजेत अछि केवल मृत वेश्या सभक क्रन्दन
केवल एकटा कारी पीयर गिद्ध
उचरैत हमरे नाम-
सुखायल सेमरक कुष्ठोदर मे बैसल हँसैत अछि;
हमसभ अनिकेत, अपराजित बरखा सँ
बचबाक लेल;
बचबाक लेल बज्र ठनका सँ
सेमरक एहि डारि सँ ओहि डारि तर नुकाइत,
मृत्यु सँ नुक्का-चौरो खेलाइत रहइत छी राति भरि!
किन्तु,
कहियो नहि समाप्त होइत अछि राति!
कहियो पंचम सुर मे नहि गबैत अछि कोकिल
भोरक, अथवा वसन्तक गान!
हमरा सभक पूर्वज भोर देखने छलाह!
गौने छलाह पराती, वसन्तक स्वागत मे वसन्त-बहार
बनि गेल छलाह;
किन्तु, आइ हम सभ एहि महावन मे छी समस्त
पूर्वज-विहीन!
हुनका सभक कोनो संस्कार,
कोनो परम्परा
कोनो श्रद्धा नहि रहि गेल अछि हमरा सभ मे!
हम सभ निराश्रित, निराधार
क’ रहल छी अमावाश्याक एहि श्मशान मे
सभ व्यतीत वस्तु-जात केँ
अस्वीकार!
(3)
आब अस्तित्वक अविचल यथार्थ दुइएटा अछि
प्रथम ई जे हम सभ ताकि रहल छी
किरणमाला;
दोसर एतबे जे अतीत-प्रेतक अनिवार्य संगति मे, महावन मे
जीवित छी हमसभ!
***
राजकमल चौधरी ( 13 दिसम्बर, 1929 – 19 जून 1967 ) मैथिली–हिन्दी केँ समादृत कवि–कथाकार छथि. एतए प्रस्तुत कविता सब मैथिली अकादमी सँ प्रकाशित संग्रह ‘कविता राजकमलक‘ सँ आ छवि गूगल सँ साभार प्रस्तुत.