गद्य ::
उत्कर्ष

सब ठीक बा न? आशा बा, रउआ सब कुशल-मंगल से होखब आ हंसत-मुस्कात जीवन के पावल-छूटल में लागल होखब. रउआ सब सोचत होखब कि ई डायरी शीर्षक के आलेख, चिट्ठी-पत्री के रूप में कान्हे आरम्भ होता. ई कान्हे से कि लेखक के आप-सबे से सीधा-संवाद करे के मन कइल. एहि से. खैर, बात ई बा कि कटिया होई गइल बा. शहर से दूर आजकल हम आपन साईकिल से भिनसहरे एक गाँव से दूसर, जवन मन में उतर जाव, वइसन चित्र के खोज में घूम रहल बानी. एक प्रकार से एकरा के ‘मोर्निंग वाक’ या ‘मोर्निंग साइकिल राइड’ शहरी अंदाज़, चाहे अंग्रेजी में भी कहल जा सकेला.त बात ई कि भोर में खरिहान घूमला के आपन सुख ह. आ इ बीचे, हमरा के जवन संतोस भेटाइल, ओकरा के खाली शब्द में बतौला में त मन भर नाहीए सम्भव हो सकी लेकिन कोसिस रही.

जेठ के ख़तम होते, शायदे कौनो खेत होखि जे रोपाई खातिर तैयार न क दिहल होखी. कान्हे से कि सावन से पहिले ही खेत में बिया रोपा जाला. आ जब बिया पौध बनके ऊपर सर उठावेला, त पटावल खेत बुझाला जइसे कौनो झील में हरियर नक्काशीदार कालीन होखे. जेठ के शुरुआत में त आजकल गाँवन के बगीचन के रौनक अलगे बा. आम के पेड़ गुच्छा में अमिया से भरल. हमार कोसिस एक भी आम तोड़े के, सफ़ल न हो पावल. ढेला भी चलवनी, आ पेड़ प चघे के कोसीस भी, लेकिन सब बेकार. का कहल जाव, आजतक इ सुख अभी बाकिए बा कि आम के पेड़ प चढ़ के, आम तोरल जाव.

भोर में खलिहान होखे, चाहे बगैचा. कोयल के कूक से जइसे अघा जाला. मन त एकदम पानी नियन बहेला. एकरा सा बढ़िया, कौनों जगह न हो सकेला, जहाँ आदमी चाहे त घंटो बिता देबे. साईकिल के सुख अलग. जहाँ साईकिल चल जाई, ओजा गाड़ी-छकड़ा ना जा सकेला. खेत के आरी प साईकिल चलावे के जवन आनंद बा, (आ रोमांच भी, कान्हे से कि एक नज़र हेने-होने आ, साईकिल पलटल राउर !) उ खोजला न भेंटाई.

अनुभूति जवन मन में रह जाई, ऊ बाटे एगो बीच के कच्चा रस्ता औरी दुनो ओर पेड़ गझिन. गोंद के, अमरुद, महुआ, पाकड़, नीम, अमलतास आदि आदि. आ कौनो-कौनो प, वनचिरई सबे. मैना आ कोयल त रहे ही, कहीं-कहीं गौरैया भी दरस देखा गइल. एक जगे त, अमलतास के जइसे बरखा भइल होखे. ख़ूब पेड़ रहे. पियर रंग, घाम में अउर चटकार हो गइल रहे.

बरखा नियरा ता. उम्मेद रही कि इ बरिस बरखा के सुतार रहे, कान्हे से कि फसल के भविष्य बढ़ियाँ बरखे प उजियार होखेला. आजकल पंप से भी पानी निकालल जाता लेकिन ओकरा में खर्च भी बहुत बा, आ जल के दोहन भी बहुत हो रहल बा.

एक जगह चापाकल के पानी पिये रुकनी त एगो बाबा ओजे पानी भरत रहन. कहलन कि, “ई पानी मत पिअ, बबुआ! ई पानी पियला खातिर ठीक नइखे.” पूछला प, कहे लगलन…” खाद आ नदी के दुषित पानी से, चापाकल के पानी भी पिए खातिर ठीक नइखे रह गइल. शहर से भी गंदा पानी बहके नदी में गिर ता. जल के व्यर्थ करके आदमी बहुत नुकसान कर रहल बा. आगे के पीढ़ी खातिर, आदमी का छोड़ के जाई.”  सही बात रहे. सटीक एकदम. प्रदूषण से सब ओतने परेसान बा. गाँव में भी पोखर कम हो रहल बा. चापाकल भी कम ही देखे के मिलल. हम सोचनी कि शहर के फेंकल धुंआ आ गंदगी, उधिया के कहाँ-कहाँ जा रहल बा. खाद के अधिक प्रयोग से माटी आपन रंग खो रहल बा.

त भटकाव से लौटला प्, जहाँ देख तनी, ओ जगह उजिआर. लेकिन का ई उजिआर बनल रहो, एकरा खातिर पूरा प्रयास हो रहल बा. शहर के नदी आपन घाट के प्रतीक्षा में सूखल महुआ हो रहल बा. गाँव के पोखर कौनो खँडहर में हेराइल पुकार. मन में इहे लहर उठ रहल बा.  कि जिए गाँव के घाम , आ शहर के छत आबाद रहे.

अगली बार एगो अउर चिट्ठी के साथे हाज़िर होखब. तबतक रउआ सबे, लालटेन के पता खोजी आ खोस के दुआर पर बाती, साँझ के कविता बटोरीं. आषाढ़ आवल बोलता, आ सावन त दिलदार मौसम ह, इहे मौसम कवियन के कविता बरिसेला आ किसानन के नियरे, पानी उछाहे के थाप बसेला.

झींगुर आपन राग में मगन बा. हम सबे आपन राग में बहीं जा, प्रीत के पौध उगा ओकर ख़याल रखी जां. शेस कुसल मंगल. हिय में नयन-अंजोर हरसो. बादल घर-आँगन बरसो.

त पंचो, राम-राम.

एगो बूढ़ा काका कान्ही प रेडियो सुनत खेत ओरे बढ़ल जात बाड़न. कोयल के कूक में समाईल गीत, आ त बिछोह सुनावता, ना त एकदम ताज़ा जलेबी नियन मीठ यारी के गीत गुनगुनात बा. बँसवारी हँसता आ छत पर नयका आम के अचार घाम में तैयार होता.

घर के दुआर जरी गिलहरियन के खेल आपन रंग बिखेर रहल बा.

***

प्रस्तुत गद्य उत्कर्ष के अलग-अलग गांव के बटोरल चित्र पर उमड़ल भाव कहल जा सकेला. गांव में घुमाफिरी लेखक के स्वभाव में से ह , अऊर ई लेख कवि-भाव भी बटोर रहल बा. उत्कर्ष इंद्रधनुष के संपादक भी बानी. इन्हा से  yatharthutkarsh@gmail.com पर संपर्क कईल जा सकेला.

 

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