कविता : सिमंतिनी घोष

अनुवाद एवं प्रस्तुति : निखिल कुमार

(सिमंतिनी, अशोका यूनिवर्सिटी, रोहतक में मनोविज्ञान की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. कविताओं के अलावा अकादमिक व सामाजिक विषयों पर काफी समय से लेखन कार्य कर रही हैं.)

तुम दिखते हो

आक्रोशित मन के धुंधलके में तुम मुझे दिखते हो
पूरी तरह सशस्त्र,
युद्ध में उतरने के लिए हमेशा तैयार.

फिर भी मेरे छूने भर से काँप उठते हो तुम
खोखले सरकंडे की तरह.
हजारों साल पुरानी नदी के किनारे जलती चिता की लपटों में तुम दिखते हो-
मैं देखती हूँ तुम्हें, उसी जगह पर मंडराते जहां मैंने
वह सारा कुछ दफना दिया था जो तुम थे.

फिर भी तुम अमूर्त हो
एक प्रेत की भांति वायव्य
तुम दिखते हो मुझे मेरी बोझिल आँखों में,
मेरी झुलसी त्वचा और जख्मी कोख में,
और खून की उस बहती धार में जो वहाँ से निकल रही-
शरीर का वह  टुकड़ा मैंने तुम्हारी छाप का खुद से मार्जन करने के लिए काट दिया!

तुम दिखते हो
उस निःस्तब्ध चुप्पी में जो कई बार तोड़ देती है मेरे भीतर के बांध.
सैलाब उमड़ पड़ता है मेरे हृदय में
हो जाता है सब सहज और स्पष्ट – ठीक वैसे ही जैसे रोशनी का सैलाब
नम, अंधेरे कमरे में!

तुम दिखते हो मुझे.
तुम दिखते हो मुझे चहलकदमी करते हुए एक घुमावदार सड़क पर मेरे साथ,
घास भरी सीमाहीन तृणभूमि हमारे बीच लहराती है,
एक सुरीली धुन मन में गूँजती है
पर घास कटने पर भी मैं तुम तक नहीं पहुँच पाती.

तुम दिखते हो,
न पढे गए खतों के पुलिंदों में,
स्याही के निशान जो महज व्यर्थ याचना बनकर रह गए,
तुम्हारे खौफ और तुम्हारी हंसी में,
मेरे आईने देखने के दौरान होनेवाली तुम्हारी तत्पर टकटकी में.

पर लगता है, तुमने शायद ही कभी देखा मुझे!
मेरे हर जख्म में दिखते हो मुझे तुम

क्या कभी किसी ने ऐसे देखा तुम्हें,
जैसे देखती हूँ मैं?

निखिल कुमार, बी एस कॉलेज लोहरदगा में सहायक प्राध्यापक हैं. उनसे nkpathak47@gmail.com पर
सम्पर्क किया जा सकता है.

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