नोबेल व्यक्तव्य :: एली वीसल
अनुवाद व प्रस्तुति : आनंद सिंह
एली वीसल का जन्म रोमानिया में हुआ था. उन्होंने हॉलकॉस्ट झेला था और यातनागृहों में रहे थे. जब 1986 में उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया तो समिति ने उन्हें “मानवता का संदेशवाहक” कहा था. मानव-अधिकारों के लिए जीवन भर काम करने वाले एली बाद में अमेरिका में बस गए. उनके संस्मरण अंग्रेज़ी में “नाइट” शीर्षक से छपे. यह व्यक्तव्य नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के समय दिया गया था.
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एली वीसल
इस पुरस्कार को ग्रहण करते वक़्त मैं एक अगाध विनम्रता से परिपूर्ण हूँ. मुझे यह पता है की आपकी पसंद मेरे व्यक्तित्व से कहीं ऊंची है. यह बात मुझे भयभीत करने के साथ साथ खुश भी करती है.
मैं भयभीत क्यों हूँ? इसीलिए क्यूंकि मैं ये नहीं समझ पाता की क्या मुझे उन असंख्य मारे जा चुके लोगों का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है? क्या मुझे उनकी ओर से यह महान आदर स्वीकार करने का अधिकार है? कतई नहीं. ऐसा सोचना अभिमान पालने के समान होगा. जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, उनके लिए कोई वकालत नहीं कर सकता. किसी को भी ये अधिकार नहीं है कि वो उनके सपनों और दृष्टि की व्याख्या करे.
मैं प्रसन्न हूँ क्यूंकि मैं ये कह सकता हूँ कि ये विशिष्ट आदर, सारे वापस लौट गए लोगों और उनकी संतानों का है, और हमारे माध्यम से, उन सारे यहूदियों का जिनकी किस्मत को हमेशा मैंने अपनी किस्मत से जोड़ के देखा है.
मुझे अच्छे तरीके से याद है: शायद यह कल ही हुआ था, या शायद सदियों पहले. एक जवान यहूदी लड़के ने रात्रि के साम्राज्य की खोज की थी. मुझे उसकी हैरानी याद है, मुझे उसकी वेदना याद है. सब कुछ कितनी जल्दी हुआ था. निर्वासन. मवेशियों को ढोने वाली घुप्प और अँधेरी गाड़ियां. वह प्रज्ज्वलित वेदी जिसपर हमारे लोगों का इतिहास, और मानवता का भविष्य, दोनों बलि चढ़ाये जाने वाले थे.
मुझे याद है, उसने अपने पिता से सवाल किया था: ‘क्या ये सब सच हो सकता है?’ आख़िरकार, ये मध्य युग तो नहीं है. बीसवीं शताब्दी है. कौन ऐसे जघन्य अपराध होने देगा? ऐसी स्थिति में पूरी दुनिया मौन रहना कैसे चुन सकती है?
अब वो बालक मेरी तरफ मुड़ के पूछ रहा है: ‘मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये. आपने मेरे भविष्य के साथ क्या किया है? आपने अपने जीवन के साथ क्या किया है?’
मैं उससे कहता हूँ कि मैंने पुरजोर कोशिश की है स्मृतियों को जीवित रखने की. मैंने भूलने वालों से लड़ने की अथक कोशिश की है. क्यूंकि अगर हमने स्मृतियों को लोप हो जाने दिया, तो हम दोषी होंगे, पाप में सहभागी होंगे.
इसके पश्चात मैं उसे समझाता हूँ कि हम कितने अबोध थे, कि दुनिया को हमारे ऊपर हो रहे अत्याचारों के बारे में सब पता था और फिर भी उसने चुप रहना उचित समझा. इसी वजह से मैंने यह निश्चय किया कि अन्याय और ज़ुल्म के विरोध में कभी चुप नहीं रहूँगा, चाहे वो अन्याय किसी के भी खिलाफ हो रहा हो, अथवा दुनिया के किसी भी कोने में हो रहा हो. हमें कोई ना कोई पक्ष अवश्य लेना चाहिए. तटस्थता हमेशा अत्याचारियों की ही सहायता करती है, सताये जा रहे लोगों की कभी नहीं. हमारी ख़ामोशी ज़ुल्मी मानसिकता को प्रोत्साहन देती है, जिनपर ज़ुल्म ढाया जा रहा होता है उनको कभी नहीं. हमें हस्तक्षेप अवश्य करना चाहिए. जब कभी भी इंसानों की जान खतरे में हो, उनका गौरव खतरे में हो, तो राष्ट्रों की सीमा-रेखाएं अपना मायना खो देती हैं. जहाँ कहीं भी लोगों को उनके धर्म, नस्ल या राजनीतिक मतों के कारण उत्पीड़ित किया जाता हो, उसी वक़्त वो जगह ब्रह्माण्ड का केंद्र बन जानी चाहिए. निस्संदेह.
दुनिया में बहुतेरी ऐसी चीज़ें हैं जो हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए चीख रही हैं: भूख से व्याकुल लोग, नस्लभेद और धर्म के कारण सताये जाने वाले लोग, लेखक एवं कविगण, दक्षिणपंथ और वामपंथ द्वारा शाषित राज्यों में सज़ा काट रहे अनेकों बंदी!
अमूमन हर महाद्वीप में मानवाधिकारों का उल्लंघन सरेआम किया जा रहा है. शोषित जनसमूह की संख्या सामान्य जनसमूह की अपेक्षा कहीं ज़्यादा है.
और फिर आते हैं फिलिस्तीन के बाशिंदे, जिनकी दुर्दशा के प्रति मैं संवेदना रखता हूँ, हालांकि उनके अपनाये गए तरीकों से कभी भी सामंजस्य नहीं बैठा सकता. प्रतिहिंसा और आतंकवाद कभी भी उत्तर नहीं हो सकते. उनकी इस अवस्था के सुधारने के लिए बहुत जल्द ही कुछ ठोस कदम उठाये जाने होंगे. मैं इजराइल पर भरोसा करता हूँ, क्योंकि मुझे यहूदियों पर अटूट विश्वास है. इजराइल को एक मौका दिया जाना चाहिए, उसके क्षितिज से नफरत और आतंक के बादल छटने देने चाहिए, और मुझे पूरा विश्वास है कि पवित्र भूमि तथा उसके इर्द गिर्द शान्ति अवश्य स्थापित हो जाएगी.
हाँ, मुझे विश्वास है, ईश्वर में और उसकी बनायी हुयी दुनिया में. उसके बिना कोई भी क्रिया संभव नहीं है. और कर्म ही एकमात्र विकल्प है उदासीनता के खिलाफ. क्या अल्फ्रेड नोबेल की विरासत का यही सार नहीं है? उनके लिए युद्ध का डर, युद्ध के खिलाफ ढाल ही तो था.
किये जाने को इतना सब कुछ है, ऐसी तमाम चीज़ें हैं जो की जा सकती हैं. एक इंसान – एक राऊल वालेनबर्ग, एक अल्बर्ट श्वेतजर, एक सच्चा व्यक्ति काफी फ़र्क़ ला सकता है, और अमूमन यही फ़र्क़ जीवन और मौत के बीच का फ़र्क़ बन जाता है.
जब तक एक भी असहमत व्यक्ति सलाखों के पीछे रहने को मजबूर है, तब तक हमारी आज़ादी खोखली ही रहेगी. जब तक एक भी बच्चा भूखा सोने को मजबूर है, तब तक हमारा जीवन शर्म के बोझ तले दबा रहेगा. इन पीड़ित लोगों को सबसे ज़्यादा ये जानने की ज़रुरत है की वे अकेले नहीं हैं, कि हम उन्हें कतई भी नहीं भूले हैं, कि जब जब उनकी आवाज़ को दबाया जाएगा, तब तब हम उन्हें अपनी आवाज़ प्रदत्त करेंगे. हमें ये समझने की ज़रुरत है की अगर उनकी आज़ादी हमारे ऊपर निर्भर करती है, तो हमारी आज़ादी की गुणवत्ता उनके ऊपर.
मैं यही कहता हूँ उस जवान यहूदी लड़के से जो इस सोच में है कि मैंने उसके गत वर्षों के साथ क्या किया है. मैं उसी लड़के के बिनाह पर आपसे बात कर रहा हूँ, तथा आपको तहेदिल से धन्यवाद भी अर्पित कर रहा हूँ. मैं समझता हूँ की आभार व्यक्त करने में उस व्यक्ति से ज़्यादा सक्षम कोई नहीं है जो रात के साम्राज्य से सकुशल लौट आया है. हम जानते हैं कि हर एक लम्हा एक हमारे लिए एक इनायत है, प्रत्येक घंटा एक तजवीज़; उन्हें दूसरों से साझा ना करना उनके साथ विश्वासघात करने के समकक्ष होगा. हमारी ज़िंदगियाँ अब केवल हमारी नहीं रह गयी हैं, अब वो उन सबकी अमानत हो चुकी हैं जिन्हें इनकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है.
धन्यवाद, अध्यक्ष आरविक. नोबेल समिति के सदस्यों का भी धन्यवाद. अंततः, नॉर्वे की जनता का भी शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जिन्होंने इस मौके पर ये घोषित कर दिया कि हमारी उत्तरजीविता अभी भी मानव सभ्यता के लिए असीम मायने रखती है.
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आनंद सिंह पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में रहते हैं. उनसे anandrj903@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है.